लाओ त्सु- ताओ द चिंग भाग १.२

लाओ त्सु कहते हैं नाम ही सभी सांसारिक वस्तुओं का स्त्रोत है। हम तो कहते हैं की जो वस्तु होती है उसको नाम दिया जाता है, लाओ त्सु कुछ और बोल रहे है, वो कह रहे है तुम नाम देते हो इसलिए वस्तु होती है। सुनने में बड़ा गड़बड़ लगता है। लाओ त्सु कहना चाहते हैं नाम आ रहा है तुम्हारे अज्ञान/अपूर्णता/कामना से~ चीज़ तो एक ही है तुमने बस अज्ञान के कारण कई काम दे दिए कई चीज़ें खड़ी कर ली। एक वास्तु है जिसे तुमने अपने सौं आंशिक कोणों से देखा और तुमने उसको सौं नाम दे दिए। 

अज्ञान का काम है सौं देखना, और ज्ञान का काम है सौं में एक को देखना। और ज्ञान से आप बहुत बचोगे अगर आपकी सौं अलग अलग में कामना लग गयी है/ प्रीती लग गयी है। तब आप नहीं चाहोगे की वो सौं मिट कर एक हो जाए, आप चाहोगे की उन सौं में विषिष्टताएं बनी रहे। सोचने की बात है, आज लोग कृष्ण को पाने के लिए उनकी लीलाएँ कथाओं में से उनके अनेक रूपों को निकाल कर पूज रहे हैं जबकि जो कृष्ण पूज्य है जिससे आत्मा/सत्य की प्राप्ति होगी उस कृष्ण को पूजने को कोई तैयार नहीं है~ ये है अहम् की एक चाल, जो बड़े को ना पाने के चलते उसके कई विभाजन कर देता है जिससे वो बचा रह सके। 


तत्त्व भले एक ही हो, लेकिन अहम् को उनमे भेद करना है। भेद हटाओगे तो अहम् को बड़ी चोट पहुँचेगी। जहाँ भेद नहीं है वहां आप भेद करते हो और जहाँ भेद है वहां भेद करने से चूक जाते हो। ज्ञानियों ने कहा है एक ही भेद है वो करो~ सार और असार का भेद/सत असत का भेद/नित्य अनित्य का भेद/आत्मा अनात्मा का भेद। ये बस एक भेद करना है, बाकि और कोई भेद नहीं करना- सिर्फ अभेद में जीना है। सिर्फ एक ये जगह है जहाँ ये कह देना है- कुछ ग्रहण है और कुछ अग्राह्य है, बाकि सब एक ही है। लेकिन भेद का अधिकार जो है आपके पास वो ऐसा है जैसा कर्ण के पास, जो शक्ति थी की उसका इस्तमाल बस एक बार हो सकता है। 

अगर आपने वहां अंतर कर दिया जहाँ अंतर नहीं करना चाहिए तो आप वो अधिकार खो दोगे जहाँ अंतर करना चाहिए। यहाँ महत्व आ जाता है समभाव का, छोटी चीज़ों में ऊँच नीच देखना बंद करो, वहां जो चल रहा है चलने दो! (उपेक्षा) उदहारण के लिए, इतना ज़्यादा अगर ध्यान दोगे की खाने में स्वाद है की नहीं है;  तो तुम्हारा रसोइया बहुत ज़्यादा स्वाद खाना बना देगा और फिर इस बात पर ध्यान नहीं दे पाओगे की खाना पौष्टिक है या नहीं। जहाँ अंतर करोगे वहीँ सारी ऊर्जा लगा लोगे, वहीँ सारा महत्व दे दोगे और जहाँ महत्व देना होगा वहां नहीं दे पाओगे।तुम जहाँ अंतर करते हो उसी जगह सारा जीवन बीत जाता है। जहाँ जीवन न बीतना हो वहां अंतर करना बंद करो। 

जो न आखिरी है न आखिरी की ओर ले जाता है, क्यों रखे उसको मन में? जिसकी पात्रता नहीं, उसको मन में स्थान क्यों? छोटी चीज़ के बारे में सोचकर में अपने ही छुटपन को प्रोत्साहन दे रहा हूँ। खुद को ही छोटा कर ले रहा हूँ।लाओ त्सु इस बात को इतना आगे तक ले जाते हैं की कहते हैं: "हर चीज़ ही छोटी है। किसी भी चीज़ को बहुत महत्व क्यों देना है? हर वो चीज़ जिसका नाम होता है वो छोटी है और नाम देकर ही तुम चीज़ों का निर्माण करते हो। नाम का अर्थ है महत्व/विशिष्टता।"

जहाँ महत्व नहीं है वहां निर्माण नहीं होगा, उदहारण के लिए रोटी और पिज़्ज़ा दोनों के पीछे तत्त्व एक ही है: "गेंहू" लेकिन दोनों को भिन्न बनती है हमारी कामना।  लाओ त्सु कह रहे है अंतर करना है तो इस आधार पर करो की क्या है जो कामना के कष्ट से मुक्ति दे देगा, इस आधार पर नहीं की क्या है जिसको कामना माँग रही है। कामना के कष्ट से मुक्ति न रोटी दे सकती है ना पिज़्ज़ा, लेकिन कामना के चलाये चलोगे तो इन दोनों में बहुत फर्क है, कामना से मुक्ति का लक्ष्य रखोगे तो इन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है। स्वाद ने गेँहू को कहीं रोटी और कहीं पिज़्ज़ा बना दिया। लाओ त्सु कह रहे है नाम पहले आता है, वस्तुएँ/अलग अलग वस्तुएँ/भेद/पृथकता बाद में आते हैं। कामना पहले आती है और कामना ही विशिष्टताओं का निर्माण कर देती है, वहां अंतर कर देती है जहाँ अंतर है नहीं। विशिष्टता की प्यास ने आपको वहां भी अंतर दिखा दिया जहाँ अंतर था नहीं। विविधता में आप प्रकृति के भीतर भीतर अंतर कर डालते हो और विवेक में आप प्रकृति और परमात्मा में अंतर कर डालते हो। विविधताओं की उपेक्षा करनी है और विवेक को महत्व देना है।  

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