धृतराष्ट्र उवाचा
धर्म-क्षेत्र कुरु-क्षेत्र समवेता युयुत्सवाह
ममाक पांडावाशचाइवा किमाकुरवता संजय ||
धृतराष्ट्र ने कहा: हे संजय, कुरुक्षेत्र के पवित्र क्षेत्र में इकट्ठा होने के बाद, और लड़ने के इच्छुक, मेरे बेटों और पांडु के बेटों ने क्या किया?
भगवत गीता की शुरुआत होती है धृतराष्ट्र के प्रश्न से: हे संजय, कुरुक्षेत्र के पवित्र क्षेत्र में इकट्ठा होने के बाद, और लड़ने के इच्छुक, मेरे बेटों और पांडु के बेटों ने क्या किया?
अब यहाँ पर सबसे बड़ा सवाल उठता है की संजय युद्धस्तल से इतना दूर बैठे कैसे देख पा रहे है/सुन पा रहे है की युद्ध भूमि में क्या चल रहा है?
ऐसे प्रश्नो की केन्द्रीयता ही नहीं है, इसलिए ऐसे प्रश्नो पर ज़्यादा ग़ौर करने लायक नहीं है क्युकी वो मुद्दा अहम् नहीं है। संजय ने कैसे देखा, अपनी आँखों से देखा, गुप्तचरों से देखा, या सुनी सुनाई बात बता दी- कुछ भी हो सकता है- जो कुछ भी हुआ वो अप्राथमिक ही है।
पहला अध्याय शुरू होता है धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से: जिज्ञासा को भी आप दो प्रकार से देख सकते है- पहली वो जिसमे आप यह जानने के लिए उत्सुक हो की आपके लिए क्या उचित है?, और दूसरी केंद्रीय प्रश्न से सदा बच कर चल रही होती है और यह जानने के लिए उत्सुक होती है की अपने अपकर्म के फलों (कर्मदण्ड) से बचने के लिए क्या किया जा सकता है? (अंदर से तो हम सब ये जानते ही हैं की क्या गलत है और क्या सही- कहीं न कहीं धृतराष्ट्र को ये ज्ञात था की उसने आजीवन गलत का ही साथ दिया जिसके फल से भोग आज उसे करना पड़ेगा। धृतराष्ट्र कोई निष्पक्ष श्रोता नहीं है, जैसे जैसे गीता में आगे बढ़ेंगे, संजय की बातें आपको बता देगी की धृतराष्ट्र निष्पक्ष नहीं है। वो सब कुछ जो नहीं किया जाना चाहिए था वो करने के बाद अब पूछ रहे हैं धृतराष्ट्र की बताओ क्या चल रहा है। असल में तो वो यह सुनना चाहते हैं की "दुर्योधन का विजय अभियान चल रहा है")
प्रश्न करना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन प्रश्न अगर इस तरह से किया जाए की मूल प्रश्न दबा रहे तो ये प्रश्न प्रश्न नहीं प्रश्न का विरोधी है- यह सवाल, सही सवाल को दबाने के लिए पूछा गया है। जिज्ञासा को सदैव ही रहेगी, बात बस ये है की जिज्ञासा आपको समाधान की ओर ले जा रही है या कोई खोखला उत्तर देकर क्षणभर के लिए संतुष्ठ कर रही है? सही समाधान हमे मिलते इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे प्रश्न की गलत होते हैं। धृतराष्ट्र चाहते तो कितने सवाल पूछ सकते थे, लेकिन धृतराष्ट्र ने सबसे निचले स्तर का सवाल पूछा। पूछने को पहले इनके पास भीष्म थे, विदुर थे, स्वयं श्री कृष्ण भी थे- जो पूछना था वो कभी पूछा ही नहीं- इसलिए नहीं पूछे क्योंकि पता था की जो उत्तर मिलेंगे वो मोह को भारी पड़ेंगे।
प्रश्न उत्तर की सीमाओं को तय करते हैं, और हम जानबूझकर ऐसा प्रश्न ही पूछते है की उत्तर हमारे हितों को/सुविधाओं को चोट न दे जाए। धृतराष्ट्र को पता था की उस समय यदि भीष्म, कृष्ण, विदुर आदि से प्रश्न पूछते तो उन्हें वो उत्तर मिलता जो उनके पुत्रमोह पर भारी पड़ता। कई बार आप भी जब बड़े ज्ञानियों से कुछ प्रश्न करते हैं तब आपको उसका जवाब मिलता है जो आपने पूछा ही ना हो- आप बड़े संदेह में पड़ जाते हो की "मैंने पूछा क्या था और जवाब क्या मिला" वो इसीलिए क्योंकि आपका सवाल गलत होता है जिसका सही जवाब आपको दिया जाता है। ज्ञानी आपको वो नहीं देते जो आपको चाहिए, आपको वो देने की कोशिश करतें हैं जो आपके लिए मददगार होगा।
पहला श्लोक हमे बता रहा है की युद्ध कहाँ से शुरू हुआ है- आदमी के भीतर के झूठ से- जहाँ तथ्य पता है लेकिन तथ्य को स्वीकार नहीं करना है। अपने प्रति चालाकी करके न तो धृतराष्ट्र का उत्थान हो पाया है न ही हमारा उत्थान हो पाएगा।
इसलिए सही प्रश्न पूछना सीखिए- हर बार आपको ऐसे ज्ञानी नहीं मिलेंगे जो आपको गलत सवालों के सही जवाब देंगे। गलत सवाल पूछोगे तो गलत सवाल के गलत जवाब बड़ी आसानी से मिल जाएंगे- आप भी खुश, बताने वाला भी खुश।
बात सही सवाल पूछने की है, सही सवाल पूछोगे तो सही जवाब पक्का मिलेंगे। रही बात पात्रों की तो सही सवाल जब गलत पात्र से पूछोगे तो गलत पात्र से मिले जवाब से भी असंतुष्ठ ही रहोगे। धृतराष्ट्र का कृष्ण आदि से सवाल ना पूछना ही उनके अहम् चाल है!
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