कठोपनिषद १.२.४~ हम कौन है, जगत से हमारा क्या रिश्ता और जिया कैसे जाए?



यमराज नचिकेता से कहते हैं कि तुम प्रशंसा के योग्य हो क्योंकि तुम अविद्या को नहीं विद्या को जानना चाहते हो।

शरीर आश्रित है संसार पर, और मन जिसके केंद्र में अहम बैठता है वो संसार से अपना सूक्ष्म अस्तित्व लेता है उसी प्रकार से जैसे शरीर संसार से अपना स्थूल अस्तित्व लेता है।

शरीर संसार से पत्थर नहीं गेहूं मांगेगा~ गेहूं स्थूल है, शरीर भी स्थूल है, शरीर भेद करेगा कि पत्थर मिला कि गेहूं मिला? पत्थर मिलेगा तो शरीर नहीं भरेगा, गेहूं मिला तो शरीर भर जायेगा। मन सूक्ष्म है~ वो संसार से मांगेगा रोटी नहीं, पिज़्ज़ा देदो~ दोनों गेहूं है, दोनों में नाम का रूप का अंतर है~ नाम, रूप स्थूल नहीं सूक्ष्म होते हैं। पत्थर नहीं मिलेगा, गेंहू मिलेगा तो तन भर जाएगा, गेहूं नहीं मिला, पिज़्ज़ा मिल गया तो मन भर जाएगा। इसलिए ये कहा जा सकता है कि तन और मन दोनों आश्रित संसार पर ही होते हैं~ एक स्थूल रूप से एक सूक्ष्म रूप से। तन(स्थूल) और मन(सूक्ष्म) की रचना ही ऐसी है कि वो भागते ही बाहर(संसार) की ओर है।

अविद्या माने इंद्रियों के विषय को जानना, और विद्या माने इंद्रियों के अनुभोगता को, विषयता को जानना। जानने में तो कोई समस्या नहीं होनी चाहिए? चाहे अविद्या हो या विद्या, जाना तो दोनों को चाहिए, फिर यमराज नचिकेता की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं?

समस्या ये है कि जब आप अविद्या को जानने की ओर बढ़ते हो, तब जानना छूट जाता है। बाहर की ओर चलने में समस्या नहीं है, जानने के छूटने में समस्या है। दुनिया में ही जीने और रिश्ता रखने के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं है~ तन को गेहूं ही खिलाना पड़ेगा, और मन में विषय ही रहेंगे। तन और मन दोनों को इसी संसार में विचरण करना है~ वही संसार जो इंद्रियों को दिखाई देता है।

अब मुद्दा ये है कि जिए कैसे? दुनिया की उपेक्षा कर दें? ये कह दें कि ये सब मोह माया है? या कोई और सच्चा ईमानदार तरीका हो सकता है जीने का?

अगर समझना है तो स्वयं और संसार के बीच का रिश्ता जानना पड़ेगा~ विद्या और अविद्या में संबंध जानना पड़ेगा। दुनिया को दो तरीके से देखा जा सकता है, "मुझे इसे जानना है" vs "मुझे इसे भोगना है"। जैसे कुछ भी भोगा जा सकता है वैसे कुछ भी जाना जा सकता है, यही जीने के दो तरीके हैं।

जो स्वयं को नहीं जानता, वो स्वयं की पहचान करता है अतीत में भोगे गए विषयों के द्वारा या फिर भविष्य में भोगने की जिन विषयों की उसकी आकांक्षा है उसके द्वारा। आपके पास आपके भोग के अलावा कोई दूसरी पहचान नहीं है~ कोई आपसे पूछे आप कौन हो तो आप कहेंगे कि स्त्री/पुरुष(शरीर, भोगने का माध्यम) आप कहेंगे अमीर/गरीब(भोगा गया विषय/भोगने की आकांक्षा) आप कहेंगे MSc/MBA( भोगने के लिए ली गई डिग्री)। आपके पास जो कुछ है उसे आप भोगने के लिए ही इस्तेमाल करते हो, और आपके पास जो कुछ है उसके अलावा आपकी कोई पहचान नहीं~ तो माने आपकी हर पहचान आपके भोग से आ रही है।

भोग की दृष्टि को दृष्टि कहना भी सही नहीं होगा(क्योंकि दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है जैसे जाना जा रहा हो)~ भोग की दृष्टि भी नहीं होती, भोग अंधा होता है। यही अंधापन समस्या है, संसार समस्या नहीं है~ संसार के प्रति अंधापन समस्या है। कुछ भी अपने आप में घातक नहीं है, अगर तुम उसको जानते हो तो(सांप के विष से ही दवाई बनती है~ बताओ घातक है या नहीं? है भी और नहीं भी! सांप ने बेहोशी में डस लिया, अब होश में उसी सांप के विष का उपयोग लिया तो विष कट गया~ तो बुरा ना तो सांप है, ना ही विष है~ बुरी तो बस बेहोशी है।)
जब कुछ न अनिवार्यत अच्छा है या बुरा है तो कोई कर्म कैसे अनिवार्यत अच्छा या बुरा हो सकता है? कुछ भी करना सदा अच्छा नहीं हो सकता और कुछ भी करना सदा बुरा नहीं हो सकता~ मतलब बात अब कर्म पर नहीं रह जाती, ना ही विषय पर रह जाती, बात आ जाती है विषयता पर, भोगता पर~की दृष्टि कैसी है?

आप मात्र तब हैं, जब आप होश में हैं~ अगर आप होश में नहीं है तो यह मत कहिए कि हम बेहोश हैं यह कहिए कि हम है ही नहीं~ इसीलिए अहम को मिथ्या कहा जाता है। आप सिर्फ तब हैं जब बोध है~ अहम तो बोध में मिट जाता है।

होश में रहना~ आंख खुली रखना एक चुनाव है, यह अकस्मात नहीं होता~ असल में तो आंख कभी बंद ही नहीं होती, पलक बंद होती है~ पलक का आशय यहाँ कोहरे से है, अहम से है~ जब कोहरा हट जाता है तब आकाश को देखने की कोई विधि नहीं होती बस आकाश दिख जाता है। इसलिए जानना कोई कर्म नहीं है, भोगना कर्म है। जानने की कोई नियत नहीं होती, जानना तो बस स्वभाव है~ तुम अगर भोगने को आतुर नहीं हो तो सहज ही जान जाओगे।

जितना आप संसार को जानते जाते हो उतना आप स्वयं को जानते जाते हो~ स्वयं को जानने का कोई तरीका नहीं है, संसार को जानने के अलावा। क्योंकि स्वयं जैसी कोई भी चीज संसार से पृथक होती ही नहीं है।

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