लाओ त्सु- ताओ द चिंग भाग १.१

भारत की तरह चीन में भी जो ज्ञान की परंपरा है वो संवाद आधारित (प्रशोन्तर परंपरा) रही है, इसी के चलते लाओ त्सु चर्चा में रहे लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कुछ लिखा नहीं। फिर लाओ त्सु वृद्ध हो गए और वो चीन से पश्चिम की ओर तिबत को जाने के लिए चल दिए (तब का चीन इतना बड़ा नहीं हुआ करता था)।रास्ते में सीमा पर एक प्रहरी ने उनको पहचान लिया और उसने उन्हें रोक लिया, कहने लगा "आपको नहीं जाने दूंगा, मुझे पता है आप कुछ विशेष जानते हैं! आपके ज्ञान से वांछित नहीं रहना चाहते, इसलिए कुछ बातें बता कर जाइये।"

उसके बाद लाओ त्सु ने एकदम साधारण तरीके से ८१ बातें कही और उन्ही ८१ बातों का संकलन बना 'ताओ द चिंग'


ठीक उस समय जब भारत में बुद्ध महावीर ने प्रस्थान करा था वो काल मान जाता है लाओ त्सु का- उसी काल में कुछ प्रमुख उपनिषद ऐसे हैं जो लिखे गए थे। इसीलिए विद्वानों ने कई बार कहा है की उपनिषादिक, बौद्ध धरा और लाओ त्सु तीनो वासतव में अलग अलग नहीं है। हालांकि ये भी है, बौद्ध धर्म लाओ त्सु के बहुत बाद पहुँचता है चीन में उसके बाद हम पाते हैं की दाओवाद में और बौद्ध धर्म में परस्पर भेद भी होते हैं और झड़प भी होती है। फिर जो चीनी बौद्ध धर्मं की रूपरेखा में दाओवाद का बड़ा योगदान रहा क्युकी जब वहां बौद्ध धर्म पहुँचा उससे पहले ही ज़मीन तैयार कर रखी थी दाओवाद ने। 

TE से आशय होता है शुभता, ये जो ग्रन्थ है वो वास्तव में दो हिस्सों में है ताओ चिंग और दे चिंग- ताओ मीमांसा और शुभता मीमांसा। माने ताओ के गुण क्या है, ताओ क्या है, ताओ पर चलने से शुभ लाभ क्या होता है- ताओ का एक मतलब रास्ता (पथ,व्यवस्था) भी होता है। पहले हम ताओ चिंग को समझेंगे, उसके बाद आता है दे चिंग।  कुल मिला कर ताओ ते चिंग से हमे ये समझना है "ताओ और ताओ से शुभता" (The Way and The Virtue) इस ग्रन्थ को लिखने का उद्देश्य है की हम समझ पाए की क्या है इस संसार के पीछे और उस समझ से हमारा कल्याण हो पाए। हम समझ पाए की ये पूरी प्रकृति ही कैसे चलती है ताकि हम भी सही चल पाए।

ऋग्वेद ने अपना नाम ही ऋत से लिया है, ऋत का अर्थ ही होता है कायदा, व्यवस्था, नियम। और ऋत शब्द ही आगे चल कर धर्म बन गया है। ऋत तो लागू होता था प्रकृति पर और धर्म लागू होने लग गया मनुष्यों पर! विचार ये था की जैसे प्रकृति में हर चीज़ एक कायदे में चलती है एक नियम में एक रास्ते पर चलती है और इस कारण समाज में शुभता है अराजकता नहीं है- उसी तरह से क्या हम वो रास्ता खोज सकते हैं जिस पर मनुष्य चले ताकि मनुष्य का जीवन भी प्रकृति सामान ही संतुलित शुभ और व्यवस्थित हो- ये विचार था। फिर वेदों में भी धर्म आगे आ गया लेकिन वो भाव बना रहा। क्या करें, कैसे जियें, कैसे चलें? ताओ ते चिंग का काम है वो रास्ता बताना जिस पर चला जा सकता है। 


पहला सूत्र ही अपने आप में बहुत सार से भरा हुआ है और वो ताओ दे चिंग के सबसे ज़्यादा शेयर किये जाने वाले सूत्रों में से एक है-

The Tao that can be told is not the Eternal Tao (वो ताओ जिसे नाम दिया जा सकता है, वो शास्वत या सनातन ताओ नहीं है) ~ पहले ही वाक्य में नेति नेति सुनाई दे रहा है। शुरुआत ही हो रही है मनुष्य के मन के साधारण ढर्रे को चुनौती देने से- हम चाहते है की हर चीज़ को, वस्तु, विचार, व्यक्ति, घटना सबको नाम दें। हमारे दिमाग में ऐसा कुछ होता ही नहीं जिसको नाम न दिया हो। लाओ त्सु कह रहे हैं सबसे पहले जो कुछ तुम्हारे मन में है उसे पीछे रख लो। जो तुम्हारे मन में है वो तो है ही नहीं, जिसकी हम बात करने जा रहे है, जिसकी बात करने से कोई लाभ है, जो इस लायक है जिसकी बात की जा सके और जिससे ये सारी प्रकृति संचालित होती है। ये लगभग ऐसा ही है जैसा कई उपनिषदों में ऋषि हमे कहते हैं- वाणी वहां जा नहीं सकती तो कैसे नाम दोगे?, मन उसकी ओर चलता है लेकिन असफल होकर आ जाता है। जो चीज़ यहाँ पर ज्ञानी समझ रहे है वो ये है की अगर नामों से भरी इस दुनिया का आधार जानना है तो नामों से तुम्हे अपने आप को खाली करना पड़ेगा। जिस भी चीज़ को तुम समझना चाहते हो, सबसे पहले उस चीज़ से अपने आप को खाली करो नहीं तो तुम उसे कभी समझ नहीं पाओगे!

आगे की कुछ पंक्तियों बाद कहा है जब तुम में कामना होती है, तब तुम्हे जो दिखाई देता है वो बस उस कामना की अभिव्यक्ति मात्र है। (Caught in desire, you see only the manifestations) सच नहीं दिखाई देगा तुम्हे! जिसके पास कामना है उसे सच नहीं दिख सकता, उसको दिखेगा तो बस अपनी कामना का "विस्तार"। उदाहरण के तौर पर समझिये, जब आपको किसी वस्तु को पाने की कामना होती है तब आपका मन लगातार उसी के बारे में सोचने लगता है की वो वस्तु पाने के बाद आपकी ज़िन्दगी कैसी हो जाएगी, लगातार उसी के सपने दिखाई देने लग जाते हैं, जबकि उन सपनों का सच्चाई से कुछ लेना देना नहीं होता। ये सपने केवल आपकी कामना का विस्तार ही तो है। 


सबसे पहले हमसे कह रहे है लाओ त्सु की अपने आप से उन सब इकाइयों वस्तुओं से खाली करो जिसके पास नाम है। नाम माने परिभाषा, माने सिद्धांत, मन का ढर्रा (concept)! अगर समझना चाहते हो की दुनिया कैसे चलती है, तो सबसे पहले अपने इस विश्वास को खाली करो की तुम्हें ज़रा भी पता है की ये दुनिया कैसे चलती है। जो कुछ भी समझने को इच्छुक हो वो सबसे पहले ये आत्मविश्वास हटाए की उनमे कुछ भी समझ है। एक बात और स्पष्ट करना जरूरी है जो लाओ त्सु यहाँ कह रहे हैं की जिसकी वो बात करना चाह रहे हैं, उसका नाम नहीं हो सकता। लाओ त्सु उस तत्त्व की बात करना चाहते हैं वो प्रकृति के पीछे है, जो प्रकृति का आधार है (ब्रह्म- वो जो प्रकृति से परे है।) 

लाओ त्सु आगे कई बार ये कहेंगे की में(लाओ त्सु) जिसकी बात कर रहा हूँ अगर तुम्हारे मन में उसका कोई नाम उठ आया तो इसका मतलब तुम मुझे(लाओ त्सु) नहीं अपने आपको ही सुन रहे हो। क्यूंकि वो नाम आया तुम्हारे ही मन (अतीत) से {हमारे मन में जो कुछ भी विचार आता है, वो आता तो हमारे अतीत के अनुभवों से ही है} इसका मतलब तुमने अपने अतीत, अपनी बात को मेरी(लाओ त्सु) बात से आगे रख लिया!

विचारों के साथ, पूर्वाग्रहों के साथ, मान्यताओं के साथ, सत्य तक नहीं पहुंचा जाता। नाम का अर्थ होता है स्मृत्यों का पिंड (bundle) जिसकी परिभाषा पहले से ही तय है, ओस है जिसकी दीवारें, अतीत ने जिसको पूरे पक्के तरीके से परिसीमित कर दिया है। उसके पास कुछ गुंजाईश नहीं है कुछ नया हो जाने की, बदल जाने की। उसमे सत्य तक के लिए कोई स्थान नहीं है, क्युकी वो बदल नहीं सकता। जो परिभाषित है वो अपनी दृष्टि में सत्य से भी बड़ा हो जाता है। इसलिए लाओ त्सु कहते हैं सत्य के आगे खाली होना बहुत ज़रूरी है~ नाम लेकर मत आ जाना (
The Tao that can be told is not the Eternal Tao)

आगे 
काव्यात्मक तरीके से कहते हैं, वो नाम जिसका कोई नाम है, वो नाम सनातन नहीं है(The Name that can be Named is not the Eternal Name) सनातन क्या हुआ फिर? जिसका कोई नाम नहीं है वही सनातन हुआ! लेकिन आज कल सनातन के नाम पर कुछ भी चल रहा है। सनातन के साथ अगर कुछ नाम मान्यता जोड़ ली, तो फिर वो सनातन नहीं है। सनातन किसी शर्त को स्वीकार नहीं करता, सनातन का अर्थ है वो जो प्रकृति का नहीं है, प्रकृति के प्रवाह के बहार है। और शर्तें सारी प्रकृति में ही होती है~ शर्त का अर्थ होता है सीमा, बंदिश। सारी सीमाएं बंदिशें तो केवल प्रकृति में ही होती है। 

नाम, नाम लेना, नाम जपना, नाम का स्मरण करना। ये भी विश्व के बहुत धर्मों में महत्त्वपूर्ण रहा है खासकर भारतीय धर्मों में। यहाँ से भी स्पष्ट हो जाता है की जब आप बात करते हैं नाम को जपने की, तो उसमे आपको धोखा क्या हो सकता है~ लाओ त्सु आज से २५०० साल पहले हमको बता गए की वो नाम जिसका कोई नाम है वो असली नाम नहीं है। अगर किसी नाम को याद ही रखना है तो उसके नाम को याद रखो जिसका कोई नाम ही नहीं हो सकता
। अगर उसका कोई नाम है तो उसका नाम जपकर तुम्हे कुछ मिलेगा नहीं!

नाम जपना है लेकिन ये सावधानी भी रखनी है की आप जिसका नाम ले रहे हो उसका नाम बाकी सब नामों का विस्मरण कराने वाला हो। आम तौर पर हमारे सारे नाम ऐसे होते हैं की एक नाम लो तो उससे एक श्रृंखला की शुरुआत होती है और हज़ारों नाम खड़े हो जाते हैं। उदहारण के लिए, आपको पहिया कहा जाए तो आपको तुरंत गाडी याद आ जाएगी, गाडी कहा जाए तो गाडी का रंग याद आ जाएगा, रंग से याद आएगा की गाडी की मरम्मत करवानी थी, मरम्मत से और भी कुछ याद आएगा और ऐसे चलकर कई हज़ारों नामों की शृंखला जुड़ती जाएगी (Chain of Thoughts)~एक नाम आप याद करो और ये हो नहीं सकता की आपको अनंत नाम न याद आए।


हम हर समय नामों के एक महा समुद्र में फसे रहते हैं। जब हमें नाम जपने को कहा जाता है तो उसका आशय ये है की क्या तुम्हारे पास ऐसा कोई नाम हो सकता है जिसके बाद तुम सारे नाम भूल जाओ?और अगर आप ऐसे नाम को जप रहे हो जिससे आप बाकी नामों को भूलने के बजाय इस नाम को भी बाकी नामों की श्रेणी में डाल देते हो~ तो ऐसे में आप किसी को नहीं बस जगत को ही जप रहे हो।  नाम जपते ही ये स्मरण आ जाना चाहिए की सारे नाम ही व्यर्थ है। और वो सिर्फ तब ही हो सकता है जब उस नाम के साथ कोई कहानी न जुडी हो। क्यूँकि कहानी का अर्थ होता है बहुत सारे नामों का विस्तार। कोई ऐसा नाम चाहिए जो मन को नामों से खाली कर दे, सिर्फ ऐसा नाम जपने से लाभ है। नहीं तो आप जप जप कर केवल अपने अहंकार को ही और दृढ़ कर रहे हो। 

वास्तव में जपने लायक तो सिर्फ मौन होता है। लेकिन मन मानने को तैयार नहीं, मन को चाहिए कोई नाम। तो ऐसे में विधि ये है की मन को वो नाम दे दो जो मन को मौन में ले जाए , जो मन के सारे अनुभवों को शिथिल कर दे।

नाम का अर्थ होता है विशिष्टता और विशिष्टता का अर्थ होता है ब्रह्म झूठ। विशिष्टता माने अलगाव, पृथकता~ नामकरण में सबसे बड़ा झूठ ये है की वो वहां पर भेद पैदा कर रहा है जहाँ भेद है नहीं। और जहाँ भेद है वहां वो भेद देख नहीं पाएगा! अगर ये जगत पूरा बना ही पंचभूत से है, अगर जड़ और चेतन का भी भेद मिथ्या है तो बताओ किस तार्किक आधार पर हम अलग अलग वस्तुओं को अलग अलग नाम दे देते हैं? बिलकुल वैसा ही है जैसे दो बच्चे अपनी अपनी मुट्ठी में मिट्टी लेकर आ गए और एक कह रहा है मेरी मिट्टी का नाम टिक्की है और दूसरा कह रहा है मेरी मिट्टी का नाम सिट्टी है। इसलिए नाम झूठ है क्यूंकि नाम पृथकता का झांसा दे देता है हमे कि "अलग है सबकुछ"।


फिर से छटी पंक्ति पर आते हैं, नाम आवश्यक होते हैं ताकि कामना बची रहे। जब कुछ पृथक होगा तब ही तो कुछ छोटा/बड़ा होगा ना, यदि कुछ बंटा ही नहीं है तो सब अनंत हो गया। अनंत को ही तो हम इतने सारे छोटे हिस्सों में बांटकर नाम देते हैं ना। जो पूर्ण है उसको कैसे नाम दोगे? नाम तो तभी होते हैं जब छोटे हिस्से बन जाते हैं। जब छोटे हिस्से बन जाते हैं तब उनकी कामना की जाती है, अनंत की कामना नहीं की जा सकती। अनंत के आगे तो बस ढेर हुआ जा सकता है ~ की ख़तम हो गए! किसी वस्तु को विशेष बना देना कामने के लिए बहुत आवश्यक है। जब तक सामने कोई छोटी चीज़ नहीं होगी तो अहंकार जियेगा कैसे? क्यूंकि बड़ी चीज़ को तो अहंकार खा नहीं सकता बल्कि वो अहंकार को खा जाती है। अहंकार छोटी चीज़ के दम पर ज़िंदा रह पता है। 

अहंकार अगर बड़े को खाना चाहता है तो उसके भी विभाजन कर देता है, अहंकार क्युकी छोटा है इसलिए उसकी मजबूरी है बड़े को भी छोटा करके खाए। इसलिए वो निर्गुण से सगुण का निर्माण करता है और सगुण में अनंत भेद पैदा करता है। अहंकार की मजबूरी है भेद पैदा करना, क्युकी अहंकार का मतलब ही है "अपनी ही दृष्टि में अपूर्ण रहना"। जहाँ अपूर्णता है वहां कामना साथ साथ चलेगी। पूर्ण का कोई नाम नहीं हो सकता। अहंकार छोटे छोटे नामों को जपता ही इसलिए है क्यूंकि छोटे छोटे नामों से ही उसकी कामनाओं का सम्बन्ध है। आप अपनी एक इच्छा एक कामना नहीं बता पाएंगे जिसका नाम न हो। और नाम छोटे टुकड़ों के ही होते हैं।  

असर ये पड़ना है दिमाग पर की दिमाग जिन भी नामांकित चीज़ों से भरा है, उन चीज़ों पर पकड़ अपनी शिथिल करें। हर नाम किसी मुद्दे का द्योतक होता है और कोई मुद्दा उस मुद्दे से बड़ा नहीं होता, जिस मुद्दे की आपको फ़िक्र ही नहीं है। वो सारे मुद्दें जिनको लेकर आप आतुर रहते हो, उनमे से कोई मुद्दा उस मुद्दे से बड़ा नहीं है जो आपके ज़हन में इसलिए नहीं आता क्यूंकि वो छोटा नहीं है। जो सबसे बड़ा होता है, जो सबका आधार होता है, सबसे आसान होता है उसी को भूलना क्युकी हमारी आँख विशेष को खोजती है, क्युकी हम छोटे हैं इसीलिए बड़े को हमारी आँख ज़हर की तरह उपेक्षा देती है।

Tao that can be spoken of is not the Eternal Tao
The name that can be named is not a Constant Name

If it has a name, It is just another Thing
The named is the mother of all Things

To see the True Essence become Desire Less
To see the Manifestations have Desires

These two emerge from the Same
They have Different Name yet they are called the Same

Figure them out and you've got it made

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