'शिवमय' होने का अर्थ

शिवमय होने का क्या अर्थ है? शिव में होना मतलब 'सोमस्त' होना सोमस्त माने 'खुमारी'। कहा जाता है भोले बाबा से दानव तो डरते ही थे बाकी सब भी डरते थे।

एक और उस जमाने में महल में रहने वाले लोग हुआ करते थे बढ़िया मुकुट धन धनाढ्य राज्य सिंहासन सब कुछ और दूसरी और हमारे भोले बाबा थे नग्न अवस्था में चुपचाप हिमालय में बैठे नशे में।

 नशा गांजा का नहीं बल्कि होश का नशा आती इंद्रिय होश जिसे सामाजिक दृष्टि नशा बोलेगी। ऐसा होश जो तुम्हें समझ नहीं आता तब तुम कहते रहते हो वहां भांग घुटती है। वहां भंग नहीं घुटती- ऐसा है कि तुम खुद बेहोश हो और जो आती इंद्रिय होश में है उसे देखकर तुम्हे बेहोश नशे जैसा प्रतीत होता है।

गले में सांप, बैल पास में खड़ा, भूत प्रेत नाच रहे हैं और कहने को तुम प्रजापति, पशुपति हो?

एक झोपड़ियां नहीं मिला तुम्हें? अजीब स्थिति है? 

लड़के का सर काट के हाथी का मुंह लगा लिया? कर क्या रहे हो?

दूसरों की पत्नियों को सुख ही सुख और यहां बेचारी पार्वती को आत्मदाह करना पड़ा उसके अथक साधना के बाद तुम मिले और तुम उसे भी कहते हो कि आ जाओ बैठो यहां भूत प्रेतों के साथ। वह भी सोच रही होगी पति के साथ थोड़ा पर्सनल टाइम मिल जाए उस बेचारी को वह भी नसीब नहीं!!

माथे से गंगा बहाएंगे और खुद कभी नहीं नहाएंगे ऐसो की पत्नी की क्या हालत होती होगी यह सोचो।

कामदेव आया कामना उठाने के लिए की भाई यह तो शादीशुदा ब्रह्मचारी जैसा लग रहा है- उसको भी तुमने भस्म कर लिया? वह कामदेव जो दुनिया को नाचता है तुमने उसे भस्म कर दिया? वह बेचारा वैवाहिक पुरुष में कामोत्तेजना प्रवाहित करने आया था!

एक तरफ कामदेव को मार रहे हो बता रहे हो की कामना बुरी बात है और दूसरी तरफ अपना प्रतीक ही बना रखा है शिवलिंग?

भूत प्रेत अघोरी चांडाल सब जो दुनिया से परित्यज्ञ है वह शिव के घर आते हैं।

अब देखो शिव और समाज का क्या संबंध है- शिव वह जो अच्छे के भी पक्ष में नहीं है, राक्षसों को भी वरदान दे आए। बुरे के पक्ष में तो बिल्कुल भी नहीं है और अच्छे के पक्ष में भी नहीं है। शिव बस स्वयं के पक्ष में है। जहां शिव है वहीं शुभ है।

ब्रह्मा बनाए विष्णु चलाए और शिव भस्म कर दे- शिव माने प्रलय। शिवमय होने का अर्थ है- समाप्त होने की आरजू रखना।

जो खत्म होने को तैयार नहीं, जिनका बनाने में संवारने में, संजोय रखने में, बहुत रस है, शिव उनके लिए नहीं है।

तुम तो मध्यम वर्गीय गृहस्थ लोग हो- ब्रह्मा विष्णु की ही उपासना करो! 

शिव किसी चीज की कदर नहीं करते, एक समय की बात है भीक्षा लेने निकले और उनका भीक्षा पात्र था- ब्राह्मण की खोपड़ी- शिव वो, जो लात मार दे तुम्हारे अनुशासन को, तुम्हारी परंपराओं को, तुम्हारे ज्ञान को, तुम्हारी सामाजिक-व्यवस्था को, तुम्हारी रूढ़ियों को।

एक बार सब ऋषि लोग तपस्या कर रहे थे। तो कहानी कहती है कि शिव घूमते-घामते वहाँ पहुँच गए। अब ये सब कहने को तो ऋषि हैं, पर हैं तो सब संस्कारित मूढ़-पुरुष ही, बीवियाँ ब्याह लाए थे और ख़ुद तपस्या करने बैठ गए थे। बीवियाँ अपने घरों में बंद रहती हैं और परेशान हैं। तो शिव पहुँचे वहाँ पर, और बिलकुल सुंदर, बलिष्ठ उनकी काया। ऋषि सब लगे हुए हैं अपने उपद्रव में, उनके उपद्रव का नाम है 'तपस्या', वहाँ बैठकर शास्त्रार्थ कर रहे हैं, तपस्या कर रहे हैं। बीवियाँ अपना सर धुन रही हैं कि “कहाँ फँस गए!” शिव पहुँचे, बीवियाँ सब मोहित हो गईं, आसक्त हो गईं। शिव ने एक-एक करके जितनी पत्नियाँ थीं, सबके साथ प्रेम-क्रीड़ा करी। ऋषियों को पता काहे को चले! ख़ैर, बाद में भेद खुला, ऋषियों को बड़ी ईर्ष्या उठी, गुस्सा, खुन्दक। कह रहे कि “ये देखो, पीछे-पीछे हाथ साफ़ कर गया, माल हमारा था।“ खाए गोरी का यार, बलम तरसे, रंग बरसे!


अब ये दिखा भी नहीं सकते कि हमें ईर्ष्या उठी है, “हम तो ऋषि हैं भाई, हमें ये सब थोड़े ही है!“ तो पंचायत बैठाई गई, उन पत्नियों को बड़ा धिक्कारा गया, कि “तुम पतिव्रता नहीं थी, तुम अनजाने आदमी के साथ संसर्ग कर बैठी, तुम्हें लाज नहीं आई?” पत्नियाँ भी ग्लानि में आ गईं, बोलीं, “लगता है हमने पाप कर दिया, अपराध हो गया। काम के आवेग में लगता है हम गड़बड़ कर बैठे।” तो फिर पत्नियों को आदेश दिया कि “देखो, अब मुकदमा चलेगा, और मुकदमे में निर्णेता तुम्हीं सब होओगी। और अब उसको बुलाते हैं, अपराधी को, शिव को, और तुम ही लोग अब घोषित करना कि ये अपराधी है, और बता देना इसको सज़ा क्या मिलनी चाहिए।“ तो पत्नी ने कहा, ”हाँ, ठीक है, बुलाइए, उसको ज़रा सज़ा देते हैं। हमें भी लग रहा है कि हमने गड़बड़ कर दी, पति के साथ धोखा किया, ग़लत बात है।” तो शिव को बुलाया गया, वो आ भी गए, बोले, “हाँ-हाँ, चलो-चलो, हम पर मुकदमा चलाओ।” वो आए और उन्होंने फिर से वही रूप दिखा दिया पत्नियों को, जिसको देखकर वो मोहित और उत्तेजित हुई थीं; वो तो रहते ही हैं अपना नंग-धड़ंग। पत्नियों ने उनका रूप देखा और सब एकमत, एक स्वर में बोलीं, “ये तो निर्दोष है, इसमें क्या दोष हो सकता है?” सब ऋषि-मुनि सर धुनते रह गए, कि “क्या करें!”

ये होते हैं शिव, होना है शिवमय? है हिम्मत? तुम शिव के प्रेत हो जाओ, इतना काफ़ी है।

तो एक बार — अब कहानियाँ ही हैं पर सांकेतिक हैं, समझना — तो एक बार ब्रह्मा और विष्णु में ठन गई कि हममें से बड़ा कौन है। शिव इन सब झंझटों में पड़ते नहीं थे, कि “बड़ा कौन है?” कहते हैं, "बच्चों के खेल हैं, जिसको बड़ा होना है हो लो।" तो आपस में ये दोनों सर फोड़ने लगे, कि “बड़ा कौन है, बड़ा कौन है?“ तो सर फोड़ते-फोड़ते ये शिव के पास पहुँचे, बोले, “आप निर्णय कर दीजिए कि हममें से बड़ा कौन है।” इन्होंने कहा, “अच्छा, तुममें से बड़ा कौन है?” बोले, “ऐसा करता हूँ कि अपना लिंग बड़ा किए देता हूँ, और जो इसके अंत तक जाकर के पहले वापस आ जाएगा, वो बड़ा है।” तो उन्होंने लिंग का विस्तार कर दिया, बोले, “जाओ और इसका सिरा छूकर के वापस आ जाना। जो पहले वापस आ गया, वो तुममें से बड़ा है।”

तो कहानी कहती है कि दोनों अभी दौड़ ही रहे हैं; वापस आना तो छोड़ो, अभी वो अंत तक ही नहीं पहुँचे। तो इससे सिद्ध हो गया कि बड़ा कौन है। “ना तुम बड़े, ना तुम, सबसे बड़ा शिवलिंग!” इसीलिए शिवलिंग की फिर जगह-जगह पूजा होती है, कि “भाई! सबसे बड़ा यही है, इससे बड़ा कुछ नहीं!”

लिंग का अर्थ होता है जननांग नहीं, लिंग का अर्थ होता है प्रतीक, संकेत। लिंग का क्या अर्थ होता है? संकेत, इशारा, कुछ ऐसा जो याद दिलाता हो। शिव का लिंग दिखाया जाता है कि पार्वती की योनि में स्थापित है; वो इस पूरे ब्रह्मांड को निरूपित करता है। शिव स्थिर हैं, केंद्र में हैं, और उनके होने से चारों तरफ़ शक्ति का विस्तार है, नृत्य है; ये शिवलिंग का सांकेतिक अर्थ है। शिव के होने से शक्ति मग्न होकर समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त हैं, पसरी हुई हैं, नृत्य कर रही हैं, गतिशील हैं।

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