अष्टावक्र गीता- 1.1

 अष्टावक्र गीता में अद्वैत ज्ञान, मुक्ति के उपाय, और ब्रह्म ज्ञानी की बात है। विशुद्ध वेदांत की सशक्त अभिव्यक्ति है अष्टावक्र गीता। राजा जनक जिनके पास बुद्धि, विवेक, समृद्धि सब कुछ है लेकिन फिर भी उनको पूर्णता सताती है तो जंगल जाते हैं अष्टावक्र से मिलने। अष्टावक्र जो की बहुत छोटे हैं जनक की उम्र के आगे।

कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो॥१॥

हे प्रभु ज्ञान की प्राप्ति का क्या उपाय है? मेरी मुक्ति किस प्रकार होगी? वैराग्य कैसे प्राप्त होता है?। आप कृपा करके मुझे बताइए।

अष्टावक्र उवाच।

मुक्तिमिच्छसिचेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज ॥२॥


हे तात यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान छोड़ दो और क्षमा, सरलता, दया, संतोष एवं सत्य का अमृत के समान सेवन करो।


शुरुआत बहुत ऊंचे लेवल से होती है। भगवत गीता और अष्टावक्र गीता को यदि कंपेयर करें तो पता लगता है कि गीता में शुरू से ही अर्जुन निचले स्तर की बात कर रहे हैं- विषाद से शुरू होती है गीता। वहीं दूसरी और अष्टावक्र गीता में शुरुआत बहुत ऊंचे तल ऊंचे प्रश्न से हो रही है- पूछा जा रहा है मुक्ति, ज्ञान प्राप्ति कैसे होगी?

अर्जुन और राजा जनक की जिज्ञासा में बहुत अंतर है। भगवत गीता में अर्जुन के पास कोई तात्विक जिज्ञासा उत्पन्न ही नहीं हो पाई थी। बस अपने विषाद का वर्णन कर रहे थे। राजा जनक में यहां ना तो शंका है ना ही विषाद है स्पष्ट जिज्ञासा है। जहां जिज्ञासु इस तल का हो वहां गुरु के लिए आरंभ करना आसान हो जाता है फिर गुरु बात को गहराई में ले जा पाते हैं।

शुरुआत हमेशा आचरण के तल से, बाहरी बात से- संसार से होती है। यहां अष्टावक्र अहम् की आत्मा की बात अभी नहीं कर रहे हैं- शुरुआत ऐसे ही करनी होती है, और शिष्य को भी भीतर के गुरु (आत्मा) को जानने के लिए ऐसे ही शुरुआत करनी होती है। शिष्य को भीतर के गुरु (आत्मा) का ज्ञान यदि होता तो उसे बाहरी गुरु की क्या आवश्यकता होती? शिष्य तो बाहरी गुरु के पास आता ही इसीलिए है क्योंकि वह भीतरी गुरु को नहीं देख पता। फिर बाहरी गुरु का यह काम बन जाता है कि वह उसे भीतरी गुरु का ज्ञान- केंद्रीय बिंदु की ओर उसे ले जाए।

जब एक व्यक्ति चेतना, अनुभव, समझदारी की कुछ सीढ़ियां चढ़ लेता है- जब उसे पता लगता है कि बाहर लिप्त होने से दुख मिलता है तो वह मुक्ति मांगता है- संसार से नहीं, वह दुख से मुक्ति मांगता है। दुख से वह मुक्ति मांग रहा है, लेकिन दुख का कारण (संसार)- वह उसमें लिप्त रहना चाहता है। यहां सूक्ष्म जाएंगे तो पता लगेगा कि दुख का कारण संसार भी नहीं है दुख का कारण संसारी है। दुख का कारण भोग नहीं है दुख का कारण भोगी है।

कई लोगों को तो दुख का अनुभव भी नहीं होता।

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै। 
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

संसार में ज्यादातर लोग खाते हैं और सोते हैं- भोगते हैं और सोते हैं। भोगते हैं और चेतना की गहरी रात्रि में बेसुध पड़े रहते हैं बेहोश अचेतन- सबसे नीचे तल में आते हैं ये लोग।

थोड़ा ऊपर इन लोगों से वह लोग होते हैं जिन्हें दुख सताने लगता है फिर उन्हें मुक्ति चाहिए होती है।

तीसरे तल वाले लोग जान जाते हैं दुख का कारण, समस्या संसार है। यह लोग संसार के प्रति थोड़ा सावधान होने लगते हैं।

चौथे तल पर आते हैं वह लोग जो जान जाते हैं संसार समस्या नहीं है, संसारी समस्या है। भीतर अहंकार जो संसार का भोग करके झूठे सुख की आशा रखता है वही अहंकार समस्या है। उस अहंकार का रूप पहचान लेते हैं- यह लोग फिर संसार को किनारा नहीं करते अहंकार ही मूल कारण है- उसे जान जाते हैं।


जनक दूसरे और तीसरे तल के बीच कहीं है। सवाल से ही समझा जा सकता है, इसलिए अष्टावक्र उन्हें जवाब भी इस तल का देते हैं- समाधान भी वैसा ही देते हैं। विषयों से सुख नहीं मिलता- यह बात जनक जान चुके थे तभी अष्टावक्र के पास पहुंचे नहीं तो वह अष्टावक्र के पास पहुंचते ही नहीं।

अब आगे अष्टावक्र बात करते हैं क्षमा की। क्षमा का अर्थ है भूल जाना कि तुम्हें चोट लगी है। सांसारिक नुकसान को महत्व न देना ही क्षमा है। क्षमा संभव तभी है जब आपका अहित न हो वह तब नहीं होगा जब संसार से इतनी आसक्ति ना हो कि कोई सांसारिक दुख आपको बहुत बड़ा लगने लगे। जिसके लिए संसार बहुत बड़ी चीज है बहुत महत्व की चीज है वह क्षमा करने का पत्र कभी नहीं बन पाएगा। क्षमा कोई नैतिक गुण नहीं होता उसके लिए आध्यात्मिक मन चाहिए- ऊपर ऊपर से क्षमा संभव है, नैतिकता के चलते क्षमता संभव है। और हो सकता है उसका लाभ भी मिले पर वह सतही लाभ होगा। वास्तविक लाभ तब ही संभव है जब आपको दर्द ऊपर ऊपर लगने लगे क्योंकि भीतर तो कुछ हुआ ही नहीं। क्षमा का संबंध है विषयों के प्रति गत अनुराग हो जाने से जो वीतरागी नहीं हुआ वह क्षमा कभी नहीं कर पाएगा।


आगे बात की है सरलता की- जो चीज चाहिए उसकी और सीधे-सीधे बढ़ना ही सरलता है। टेढ़ा-मेढ़ा जो ना हो वही सरलता है। जो जटिल ना हो उसे ही सरलता कहते हैं। ऐसा चित्त जिसको जो चाहिए वह सीधा मांगता है बिना किसी माध्यम के वह सरलता है। जितने माध्यम होंगे उतनी जटिलता होगी- संसारी मनुष्य जटिल इसलिए है क्योंकि उसे सुख शांति चाहिए जिसे वह सीधे नहीं पाना चाहता संसार के माध्यम से पाना चाहता है। जो अहंकार को ही परे रख दे ताकि सच्चा आनंद मिल सके, वह सरल आदमी है। जो संसार को साधन की तरह, माध्यम की तरह उपयोग लेगा वह जटिल पुरुष है।


दया- दया संभव नहीं है अगर विषयों से लिप्सा है। भीतर अपूर्णता का भाव और यह मानना कि संसार से कुछ पा लेंगे तो पूर्ण हो जाएंगे- यह संसारी के लक्षण है। अपनी ही हालत जब इतनी दर्दनाक हो तो दूसरे के प्रति कैसे दया रख पाओगे? दूसरे के प्रति दया से पहले स्वयं को लेकर एक निश्चिंतता का भाव चाहिए। दया दिखा पाओ दुनिया के लिए इसलिए पहले जरूरी है भीतर की हालत दयनीय ना हो। संसार से स्वस्थ रिश्ता रखने का ही संबंध है दया का भी।


संतोष- कैसे तुम संतोष रख पाओगे इस जगत के प्रति जब भीतर लगातार एक गुफा है जो अपना काला मुंह खोले खड़ी हुई है? उस रिक्तता को तुम भरने के लिए संसार में ही साधन पानी की कोशिश करते हो, जब वह गड्ढा सांसारिक संसाधनों से भरता नहीं है तो दर्द होता है और असंतोष होता है। आपने देखा होगा कई लोगों को कितना भी कुछ भी मिल जाए उन्हें और पाने की लत लगी रहती है और पाने की होड़ और असंतोष हमेशा बना रहता है वह इसलिए क्योंकि उनका अहंकार प्रबल होता है। संतोष तब ही दिखा पाओगे जब संसार से आशा खत्म होगी।

सत्य- सत्य वह जो टीके- धोखा ना दे- रंग ना बदले। जैसे ही व्यक्ति सत्य का सेवन करने लगता है, वह संसार से हटने लगता है। वह समझ जाता है कि संसार तो निरंतर रंग बदलता है जिस पर अपनी आस्था नहीं रखी जा सकती।


सारी बातों का संबंध संसार से है। और संसार से बात इसलिए शुरू करनी पड़ी अष्टावक्र को क्योंकि सामने राजा है, जो खुद मा संसारी है। अष्टावक्र भली-भांति जानते हैं कि वह किस से बात कर रहे हैं और किस पृष्ठभूमि से बात की शुरुआत करनी होगी।

अष्टावक्र गीता एक अहम ग्रन्थ है जिसका मार्मिक ज्ञान हमे होना चाहिए, और ये ज्ञान भी केवल एक बार नहीं बार बार हमे मिलना चाहिए ताकि जीवन में हम सही निर्णय लेने की क्षमता बना पाए। अष्टावक्र गीता के साथ साथ इस ब्लॉग पर मैं वेदांत, ताओ उपनिषद, गीता, गुरुग्रंथ, कबीर दोहें, और सत्यार्थ प्रकाश जैसे अहम ग्रंथों का मार्मिक ज्ञान आसान भाषा में देने का प्रयास करूँगा। आज के ब्लॉग से आपकी सबसे बड़ी सीख क्या रही, कमेंट में ज़रूर लिखें और अपने सुझाव भी साझा करें। 

ओ३म् नमस्ते 

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